जौ की खेती (Jau Ki Kheti) भारत में रबी ऋतु में उगायी जाने वाली एक बहुत ही महत्वपूर्ण फसल है। भारत के अनेक उत्तरी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, हिमाचलप्रदेश, गुजरात एवं जम्मू व कश्मीर में जौ की खेती बहुतायत में उगायी जाती है । जौ की खेती अनेक उद्देश्यों जैसे खाद्य अन्न , पक्षी दाने, पशु आहार, चारा तथा अनेक औद्यौगिक उपयोग (शराब, बेकरी, पेपर, फाइबर पेपर, फाइबर बोर्ड इत्यादि) के लिए पूरे विश्व में उगायी जाती है ।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) के दाने में 10.6 तक प्रतिशत प्रोटीन, 64 प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट तथा 2.1 तक प्रतिशत वसा होती है। इसके 100 ग्राम दानों में 50 तक मिलीग्राम कैल्शियम, 6 मिलीग्राम तक आयरन, 31 मिलीग्राम तक विटामिन बी-1 तथा 0.10 मिलीग्राम तक विटामिन बी-2 व नियासीन की भी अच्छी खासी मात्रा होती है ।
जौ की खेती कैसे करें? Jau ki Kheti Kaise Karen ?
भारत देश में जौ का उत्पादन लगभग 16 लाख टन हर साल होता है और जौ की खेती (Jau Ki Kheti) लगभग 8 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में प्रतिवर्ष उगायी जाती है तथा औसत उपज लगभग 20 क्विंटल/हैक्टेयर के आसपास है। अकेले राजस्थान राज्य में ही जौ का उत्पादन लगभग 6.20 लाख टन होता है तथा इसकी खेती लगभग 2.25 लाख हैक्टेयर/ वर्ष की जाती हैं लेकिन औसत उपज 27.50 क्विंटल/हैक्टेयर के लगभग है जो क्षेत्र में इसकी उत्पादन क्षमता से काफी कम है। किसान भाईयों! इस लेख मे हम जौ की खेती का उन्नत तरीका जानेंगे।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) मे जलवायु और मिट्टी
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) अधिकतर बारानी क्षेत्र, कम उर्वरा शक्ति वाली भूमियों, क्षारीय एवं लवणीय भूमि तथा पछेती बुवाई की परिस्थितियों में ज्यादा की जाती है। लेकिन उन्नत विधियों द्वारा जौ की खेती करने से औसत उपज अधिक प्राप्त की जा सकती है ।
यह फसल हल्की ज़मीनों, जैसे कि रेती और कच्ची दोमट मिट्टी, में भी कामयाबी से उगाई जा सकती है। इसलिए, उपजाऊ ज़मीनों और मध्यम गुणवत्ता वाली मिट्टी इसकी अच्छी पैदावार के लिए सहायक होती है। इसके बजाय, जलयुक्त मिट्टी में इसकी इतनी अच्छी पैदावार नहीं होती।
जौ की खेती के लिए भूमि की तैयारी
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) अनेक प्रकार की भूमियों जैसे बलुई, बलुई दोमट या दोमट भूमि में की जा सकती है । लेकिन दोमट मिट्टी वाली जमीन जौ की खेती (Jau Ki Kheti) के लिए बहुत ही अच्छी होती है । क्षारीय एवं लवणीय भूमियों में सहनशील किस्मों की बुवाई करनी चाहिये | भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिये ।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) की अधिक पैदाकर प्राप्त करने के लिए किसान भाईयों को अपनी भूमि की अच्छी प्रकार से तैयारी करनी चाहिये। खेत में किसी भी प्रकार की खरपतवार नहीं रहनी चाहिये और खेत की अच्छी प्रकार से जुताई करके मिट्टी भुरभुरी बना देनी चाहिये। किसान भाईयों को अपने खेत में पाटा लगाकर भूमि समतल एवं ढेलों रहित सपाट कर देनी चाहिये ।
खरीफ फसल की कटाई के पश्चात् किसान भाईयों को खेत की डिस्क हैरो या रोटावेटर से जुताई करनी चाहिये | इसके बाद अच्छे से दो क्रोस जुताई हैरो से करके पाटा लगा देना चाहिये। खेत की अन्तिम जुताई से पहले किसान भाईयों को खेत में 25 कि.ग्रा. एन्डोसल्फान (4 % ) या फिर क्यूंनालफॉस (1.5 % ) या मिथाइलपैराथियोन (2 %) चूर्ण को खेत मे समान रूप से भुरकना चाहिये।
जौ की बुआई के लिए उपयुक्त किस्में
जौ (Jau Ki Kheti) की फसल से अच्छे उत्पादन लेने के लिए अपने क्षेत्र की विकसित किस्मों का चुनाव करना चाहिए। आप इसके लिए अपने क्षेत्र के किसान सेवा केंद्र या कृषि अधिकारी की भी मदद ले सकते हैं। हम आपके लिए उदाहरण के तौर अपर कुछ जौ की किस्में, उनके पकने का समय और उनकी उपज का कुछ ब्योरा इस टेबल मे प्रस्तुत कर रहें है
उन्नत क़िस्म | उत्पादन समय | उत्पादन |
ज्योति K 572/10 | 130 से 135 दिन | 35 से 40 क्विंटल / हेक्टेयर |
आजाद ( K 125 ) | 125 से 130 दिन | 30 से 35 क्विंटल / हेक्टेयर |
अम्बर ( K 71 ) | 125 से 130 दिन | 25 से 30 क्विंटल / हेक्टेयर |
रतना | 110 से 120 दिन | 25 से 30 क्विंटल / हेक्टेयर |
विजया ( K 572/11 ) | 120 से 125 दिन | 25 से 30 क्विंटल / हेक्टेयर |
आर. एस. 6 | 115 से 120 दिन | 25 से 30 क्विंटल / हेक्टेयर |
रणजीत ( DL 70 ) | 120 से 125 दिन | 30 से 35 क्विंटल / हेक्टेयर |
आर. डी. बी. 1 | 120 से 125 दिन | 35 से 40 क्विंटल / हेक्टेयर |
सी. 138 | 125 दिन | 10 से 15 क्विंटल / हेक्टेयर |
सी. 164 | 125 दिन | 20 से 30 क्विंटल / हेक्टेयर |
बी. जी. 105 | 125 से 130 दिन | 15 से 25 क्विंटल / हेक्टेयर |
बी. जी. 108 | 120 से 125 दिन | 15 से 20 क्विंटल / हेक्टेयर |
कैलाश | 140 से 145 दिन | 30 से 35 क्विंटल / हेक्टेयर |
डोलमा | 140 से 145 दिन | 30 से 40 क्विंटल / हेक्टेयर |
हिमानी | 130 से 140 दिन | 30 से 35 क्विंटल / हेक्टेयर |
आर. डी. 57 | 120 से 130 दिन | 30 से 35 क्विंटल / हेक्टेयर |
आर. डी. 31 | 120 से 125 दिन | 30 से 32 क्विंटल / हेक्टेयर |
डी. एल. 36 | 130 से 135 दिन | 35 से 40 क्विंटल / हेक्टेयर |
डी. एल. 88 | 130 से 135 दिन | 35 से 40 क्विंटल / हेक्टेयर |
करण 3 | 130 दिन | 30 से 35 क्विंटल / हेक्टेयर |
करण 4 | 100 से 110 दिन | 40 से 45 क्विंटल / हेक्टेयर |
करण 18 | 125 दिन | 40 से 45 क्विंटल / हेक्टेयर |
करण 15 | 115 से 120 दिन | 40 से 45 क्विंटल / हेक्टेयर |
जवाहर जौ 01 | 130 से 135 दिन | 30.5 क्विंटल / हेक्टेयर |
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) की बुआई, बीज दर और बीज उपचार
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) की बुआई सही समय पर करनी बहुत जरूरी है। पिछेती बुआई से फसल की पैदावार कम हो जाती है। जब एक बार खेत तैयार हो और खेत मे नमी की उपयुक्त मात्रा हो तो जौ की बिजाई मे देर नही करें।
- बुआई का समय – जौ की फसल का बुवाई का सही समय नवम्बर के पहले सप्ताह से आखिरी सप्ताह तक होता है लेकिन देरी होने पर सही किस्म के साथ बुवाई मध्य दिसम्बर तक की जा सकती है ।
- बीज दर – जौ की खेती (Jau Ki Kheti) के लिए समय पर बुवाई करने से 100 कि.ग्रा. बीज/हैक्टेयर की जरूरत होती है। लेकिन अगर बुवाई देरी से की गई है तो बीज की दर में 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर देनी चाहिये।
- पंक्ति मे अंतर – जौ की फसल की बुवाई पलेवा करके ही करनी चाहिये और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 22.5 से.मी. एवं देरी से फसल बुवाई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 से.मी. रखनी चाहिये।
- बीज उपचार– अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए, प्रति किलो बीज को 2 ग्राम बाविस्टिन से उपचार करें। इससे कांगियारी रोग का संक्रमण नहीं होगा। कांगियारी से होने वाले रोग से बचाव के लिए, बीजों को वीटावैक्स के 2.5 ग्राम से प्रति किलो बीज से पहले उपचार करें। दीमकों से बचाव के लिए, बीज को 5.3 लीटर पानी में मिलाकर 250 मिलीलीटर फॉर्माथियोन के साथ उपचार करें।\
जौ की खेती में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
जौ की सिंचित फसल के लिए, प्रति हेक्टेयर को 60 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस की आवश्यकता होती है। असिंचित क्षेत्रों के लिए, प्रति हेक्टेयर पर 40 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फॉस्फोरस पर्याप्त होता है। खेत की तैयारी के समय, 5 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद को मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।
सिंचित क्षेत्रों के लिए, फास्फोरस की पूरी मात्रा और आधी मात्रा नाइट्रोजन को बुआई के समय पंक्तियों में देनी चाहिए, 40 किलोग्राम फॉस्फोरस और 15.6 किलोग्राम नाइट्रोजन के लिए, 87 किलोग्राम डीएपी को मिलाकर शेष 14.4 किलोग्राम नाइट्रोजन की मात्रा देनी चाहिए, 31 किलोग्राम यूरिया के साथ, बुवाई के समय।
असिंचित क्षेत्रों के लिए, पूरी फॉस्फोरस (40 किलोग्राम) और नाइट्रोजन (40 किलोग्राम) की आपूर्ति के लिए, 87 किलोग्राम डीएपी में 53 किलोग्राम यूरिया को मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय पंक्तियों में देनी चाहिए। सिंचित क्षेत्रों के लिए, शेष 30 किलोग्राम नाइट्रोजन की मात्रा को 65 किलोग्राम यूरिया के साथ प्रथम सिंचाई के साथ देनी चाहिए।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में निराई गुड़ाई
आम तौर पर जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में किसान भाई बुआई के डेढ़ से दो महीने बाद निराई-गुड़ाई कर सकते है। खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए खरपतवारनाशी का प्रयोग किया जाता है। किसी भी प्रकार की खरपतवार के प्रकोप से बचने के लिए किसान भाई अपने क्षेत्र के किसान सुविधा केंद्र से संपर्क अवश्य करें या अपने क्षेत्र के कृषि अधिकारी से भी परामर्श लें।
जौ की खेती में सिंचाई
जौ (Jau Ki Kheti) की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 4-5 सिंचाई आवश्यक होती है। पहली सिंचाई को बुवाई के 25-30 दिन बाद करना चाहिए, क्योंकि इस समय पौधों की जड़ों का विकास होता है। दूसरी सिंचाई को 40-45 दिन के बाद देने से पौधों का अच्छा फुटान होता है।
इसके बाद, तीसरी सिंचाई को फूलों के आने पर और चौथी सिंचाई को दाना दूधिया अवस्था में करना चाहिए। इससे जौ (Jau Ki Kheti) की उपज को सही समय पर पानी की सहायता मिलती है और उपज में वृद्धि होती है।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में फसल के संरक्षण उपाय
किसी भी फसल के संरक्षण के उपाय 2 प्रकार से किए जा सकते है, इसमे खरपतवार नियंत्रण, रोग नियंत्रण और कीट नियंत्रण प्रमुख है। आगे इस लेख मे हम इसी पर बात करेंगे।
1. जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में खरपतवार नियंत्रण:
जौ की फसल (Jau Ki Kheti) के पौधों के साथ कई प्रकार के खरपतवार जैसे बथुआ, खरतुआ, फ्लेरिस माइनर, हिरणखुरी, मौरवा, प्याजी, दूब, आदि उगते हैं, और वे नमी, पोषक तत्व, प्रकाश और स्थान के लिए फसल के पौधों के साथ प्रतिस्पर्धा करके उनकी वृद्धि और विकास को प्रभावित करते हैं, जिससे फसल का उत्पादन कम होता है। अच्छी फसल की वृद्धि के लिए फसल के पौधों को पहले 30-40 दिनों तक खरपतवार मुक्त नियंत्रण रहना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जौ की फसल (Jau Ki Kheti) में खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए, फसल की बोई जाने वाली पेन्डीमैथालीन नामक खरपतवार नाशक को 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से छिडकाना चाहिए। इसके बाद, जब फसल 30-40 दिन की हो जाए, तो 2,4-डी 72 ईसी नामक खरपतवार नाशक को 1 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से छिडकाना चाहिए।
अगर खेत में गुल्ली डन्डा (फ्लेरिस माइनर) का अधिक प्रकोप दिखाई देता है, तो प्रथम सिंचाई के बाद आईसोप्रोटूरोन 75% की 1.25 किलोग्राम मात्रा का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से छिडकाना चाहिए।
इन कदमों के माध्यम से किसान भाई, जौ की फसल को खरपतवार से बचाने और अच्छी वृद्धि और उत्पादन प्राप्त करने में मदद मिलेगी।
2. जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में कीटों एवं बीमारियों का नियंत्रण:
जौ की फसल में विभिन्न प्रकार के कीटों और बीमारियों का प्रकोप हो सकता है, जिससे फसल को कई नुकसान हो सकते हैं। इसलिए, उपज की हानि को रोकने के लिए सही समय पर जौ की खेती (Jau Ki Kheti) मे कीटों और बीमारियों का नियंत्रण बहुत ही जरूरी है।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में दीमक नियंत्रण:
दीमक एक खतरनाक कीट होती है, जो फसल के पौधों की जड़ों को काट देती है, जिससे फसल के पौधे सूख जाते हैं और फसल को कई नुकसान होता है। दीमक को प्रभावी रूप से नियंत्रित करने के लिए खेत की तैयारी के समय अंतिम जुताई पर एन्डोसल्फॉन, क्यूनाल फॉस, या मिथाइल पैराथायोन की 25 किलोग्राम चूर्ण की मात्रा को भूमि में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) मे बीज को बुआई के समय क्लोरोपाइरीफोस की 150 मिलीलीटर मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करके बुआई करनी चाहिए। यदि खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप हो जाए, तो क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी की 4 लीटर या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 2.50 लीटर मात्रा को सिंचाई के पानी के साथ खेत में देना चाहिए।
इन उपायों के माध्यम से, जौ की खेती (Jau Ki Kheti) मे दीमक की नियंत्रण करके फसल को सुरक्षित रखा जा सकता है और फसल का उत्पादन बढ़ा सकता है।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में फली बीटल और फील्ड क्रिकेट्स नियंत्रण:
फली बीटल और फील्ड क्रिकेट्स पौधों को काटकर नुकसान पहुँचा सकते हैं। इन कीटों से प्रभावित खेतों में सुबह या शाम के समय, मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत की 25 कि.ग्रा. मात्रा को खेत में समान रूप से छिड़काना चाहिए।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में मोयला, माहू, या एफिड नियंत्रण:
मोयला माहू या एफिड जौ की खेती में फूलों के बाद दाने बनने के समय इन कीटों का प्रकोप अधिक होता है, जिससे फसल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और दाने की गुणवत्ता में कमी हो सकती है। एफिड को नियंत्रित करने के लिए, आपको रौगोर की 2 मिलीलीटर मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर खेत में समान रूप से छिड़काना चाहिए, या फिर इमीडाक्लोप्रिड की 750 मिलीलीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काना चाहिए। यदि आवश्यक हो, तो दूसरा छिड़काना पहले छिड़काने के 15 दिन बाद करना चाहिए।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में मोल्या रोग (सिस्ट नेमाटोड) का नियंत्रण:
मोल्या रोग (सिस्ट नेमाटोड) रोग के प्रकोप के कारण पौधों की जड़ों में गाँठें बन जाती हैं, जिससे पौधों की ऊँचाई कम होती है और पौधे पीले हो जाते हैं। इस रोग के कारण पौधों में फुटान कम होता है और बालियाँ कम बनती हैं। जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में मोल्या रोग के नियंत्रण के लिए रोगरोधी किस्में जैसे आरडी आरडी 2035, आरडी 2592 की बुवाई करनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त, जौ की फसल को एक ही खेत में लगातार नहीं बोना चाहिए। मोल्या रोग से प्रभावित खेत में चना, सरसों, मैथी, प्याज आदि फसलों को फसल चक्र में सम्मिलित करना चाहिए। गर्मियों में खेत की जुताई करनी चाहिए। मोल्या रोग से प्रभावित खेत में बुवाई से पहले 30 कि.ग्रा. कार्बोफ्यूरोन 30 प्रतिशत कण प्रति हेक्टेयर की मात्रा को भूमि में डालकर बुआई करनी चाहिए।
यह उपायों के माध्यम से, मोल्या रोग से ग्रसित खेतों को सुरक्षित रखा जा सकता है और फसल की उपज में सुधार किया जा सकता है।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में अनावृत्त कडुवा रोग और पत्ती कड़ुंवा रोग नियंत्रण:
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में अनावृत्त कडुवा रोग और पत्ती कड़ुंवा रोग नियंत्रण: यह रोग बहुत गंभीर होता है, और इसके कारण फसल की बालियों में दानों के स्थान पर काला पाउडर भर जाता है। रोग दिखाई देते ही, रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए क्योंकि अनावृत्त कंडुवा से ग्रसित पौधे की बालियां काली पड़ जाती हैं।
अनावृत्त कडुवा रोग और पत्ती कड़ुंवा रोग रोग के रोगाणु हवा के साथ सम्पूर्ण खेत में फैल जाते हैं। कड़ुंवा रोग की रोकथाम के लिए बीज को उपचारित करके बुआई करनी चाहिए। अनावृत्त कंडुवा के लिए वीटावैक्स, बाविस्टीन, या मैन्कोजेब की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलो बीज को उपचारित करके बुआई करने पर कड़ुंवा रोग से बचाव किया जा सकता है।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में झुलसा एवं पत्ती धब्बा रोग नियंत्रण:
झुलसा एवं पत्ती धब्बा रोगः इन दोनों बीमारियों के कारण जौ की खेती में पत्तियों पर पीले एवं भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं ये बीमारियां बहुत तेजी से फैलती है तथा फसल को काफी नुकसान पहुँचाती है। जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में इस रोग की रोगथाम के लिए रोगरोधी किस्मों को बुवाई के लिए काम में लेना चाहिये तथा जनवरी के प्रथम सप्ताह से 15 दिनों के अन्तर पर 2 कि. ग्रा. मैन्कोजेब या 3 कि.ग्रा. कापर ऑक्सीक्लोराइड या जिनेब की 2.50 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर लीटर पानी में घोल बनाकर 3 से 4 छिड़काव करने चाहिये ।
जौ की खेती में रोली रोग नियंत्रण:
रोली रोग: जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में इस रोग के कारण फसल की पत्तियों पर पीले, भूरे, या लाल-भूरे और काले रंग के फफोले बन जाते हैं। इस रोग के कारण पौधों की वृद्धि प्रभावित होती है और बालियों में दाने कम बनते हैं, और वे सिकुड़े हुए दिखाई देते हैं। जब जौ की खेती में रोग के लक्षण दिखाई दें, तो गन्धक के चूर्ण की 25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से सुबह या शाम में खेत में समान रूप से छिड़काव करना चाहिए।
अगर प्रकोप अधिक हो, तो 15 दिनों के अंतराल पर फिर से छिड़काव करना चाहिए। रोली की रोकथाम के लिए ट्राइड्रेमार्फ 80 प्रतिशत (कैलेक्सीन) या मैनकोजेब की 750 मिलीलीटर मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव किया जा सकता है।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में चूहा नियंत्रण:
चूहा नियंत्रण: खेतों में चूहों की समस्या फसल के विभिन्न चरणों पर आ सकती है। चूहे फसल के दानों को खाते हैं, जिससे फसल को नुकसान हो सकता है। चूहों को नियंत्रित करने के लिए, आपको चूहों के बिल में एक हिस्सा जिंक फॉस्फाइड को 47 हिस्सा आटा और दो हिस्सा तिल या मूंगफली के तेल में मिलाकर एक विषैला दाना तैयार करना होगा।
इस विषैले दाने को प्रत्येक बिल में लगभग 6 ग्राम दाना के रूप में रखना होगा। मरे हुए चूहों को मिट्टी में दबा देना चाहिए। चूहों को दाना के साथ आदत डालने के लिए, पहले उन्हें सादा दाना का बिल में डालना चाहिए, ताकि वे विषैले दाना को खाने से डरें नहीं। विषैले दाना को बच्चों और जानवरों से दूर रखने के लिए खद्द में गाड़ देना चाहिए।
जौ की खेती (Jau Ki Kheti) में फसल चक्र:
भूमि की पुनर्जीवन और उर्वरा शक्ति को बनाए रखने और फसल पर विभिन्न कीटों और रोगों के प्रकोप को कम करने के लिए सही फसल चक्र का अनुसरण करना चाहिए। कई फसल चक्र, जैसे कि बाजरा-जौ, मूँगफली-जौ, ग्वार-जौ, मूँग-जौ, बाजरा-जौ-ग्वार/मूँग-जौ-बाजरा-सरसों आदि, फसल चक्र के रूप में अपनाए जा सकते हैं।
जौ की खेती फसल कटाई और भंडारण:
फसल कटाई और भंडारण: जब जौ की खेती (Jau Ki Kheti) की फसल के पौधे एवं बालियां जब सूखकर पीली या भूरी पड़ जाये तो समय पर कटाई कर लेनी चाहिये । जौ की खेती में अधिक पकने पर बालियां गिरने की आशंका अधिक हो जाती है। जौ की खेती (Jau Ki Kheti) की फसल की कटाई करने के बाद अच्छी प्रकार गठरियाँ सूखाकर थ्रैशर द्वारा दाने को भूसे (खाखला) से अलग कर देना चाहिये तथा अच्छी प्रकार सूखाकर एवं साफ करके बोरों में भरकर सुरक्षित स्थान पर भण्डारित कर लेना चाहिये ।
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जौ की खेती में उत्पादन और आर्थिक लाभ:
उत्पादन और आर्थिक लाभ: उच्चतम तकनीकी तरीकों का अनुसरण करके, एक हेक्टेयर क्षेत्र में 35-40 क्विंटल जौ की फसल और 50-55 क्विंटल भूसा (खाखला) प्राप्त किया जा सकता है। जौ की खेती (Jau Ki Kheti) करने के लिए एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 25,000 रुपये का लागत आता है, इस तरह से एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 25,000 से 30,000 रुपये का खरा लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
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जौ की खेती (Jau Ki Kheti) के लिए पूछे जाने वाले प्रश्न
जौ की खेती किस मौसम में की जा सकती है?
जौ की खेती कुछ शीतल मौसम रबी की ऋतु में की जा सकती है, लेकिन यह बेहद सही तरीके से गर्मियों के मौसम में ऊंचाई वाले स्थानों पर की जाती है।
जौ की खेती के लिए कितनी बीज चाहिए?
आमतौर पर, जौ की खेती के लिए 100-125 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की मात्रा काफी होती है।
जौ की खेती में कौन-कौन से कीट प्रकोपों का सामना करना पड़ता है?
जौ की खेती में बथुआ, खरतुआ, फ्लेरिस माइनर, हिरणखुरी, मौरवा, प्याजी, दूब, फील्ड क्रिकेटस, फली बीटल, और एफिड जैसे कीट प्रकोपों का सामना किया जाता है।
जौ की खेती से कितना लाभ हो सकता है?
जौ की खेती से आप एक हेक्टेयर क्षेत्र में 35-40 क्विंटल दाने और 50-55 क्विंटल बूसा की उपज प्राप्त कर सकते हैं, जिससे आपका आर्थिक लाभ बढ़ सकता है।
जौ की खेती के लिए कितना समय लगता है?
आमतौर पर, जौ की खेती की अवधि लगभग 100-120 दिनों के बीच होती है।